Tuesday, May 15, 2012

क्या ये संविधान भारत का है या इण्डिया का



‎"इण्डिया" का संविधान कितना भारतीय है क्या ये संविधान भारत का है या इण्डिया का
भारत ना तो भारत की तथाकथित आज़ादी १५ अगस्त १९४७ को सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न रूप से आज़ाद हुआ था और ना ही २६ जनवरी १९५० को भारत का संविधान लागू हो जाने के बाद बल्कि सत्यता ये है कि भारत आज भी ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के दायरे में ब्रिटेन का एक स्वतंत्र स्वाधीन ओपनिवेशिक राज्य है जिसकी पुष्टि स्वयं ब्रिटिश सम्राट के उस सन्देश से होती है जिसे देश की तथाकथित आज़ादी प्रदान करते समय लार्ड माउंटबेटन ने १५ अगस्त १९४७ को भारत की संविधान सभा में पढ़ कर सुनाया था और ये सन्देश निम्न प्रकार था :-

" इस एतिहासिक दिन, जबकि भारत ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में एक स्वतंत्र और स्वाधीन उपनिवेश के रूप में स्थान ग्रहण कर रहा है.



मैं आप सबको अपनी हार्दिक शुभकामनाये भेजता हूँ "

संविधान की रचना सम्बंधित ऐतिहासिक घटनाक्रम मार्च १९४६ को ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने अपने मंत्रिमंडल के तीन मंत्रियो को भारत में भेजा था कि वे भारत के राजनेतिक नेताओ, गणमान्य नागरिको और देशी रियासतों के प्रमुखों से विचार के बाद आम सहमति से सत्ताहस्तांतरण की एक योजना बना कर उसे क्रियान्वित करें तथा भारत के लोगो को सत्ता हस्तांतरित कर दे इस दल को केबिनेट मिशन १९४६ के नाम से जाना जाता है

इस केबेनेट मिशन ने अपनी एक योजना का एलान किया जिसे भारत के तत्कालीन सभी दलों ने स्वीकार किया जिसकी अनेक शर्तो में से निम्न मूलभूत शर्तें थी -

]१- भारत का बंटवारा नहीं होगा, भारत का ढांचा संघीय होगा , १६ जुलाई १९४७ को सत्ताहस्तान्त्रि� � होगा

,

जिसके पहले संघीय भारत( united इंडिया) का एक संविधान बना लिया जाएगा, जिसके तहत आज़ादी के उपरान्त भारत का शासन प्रबंध होगा

२- संविधान लिखने के लिए ३८९ सदस्यों के "संविधान सभा" का गठन किया जाएगा, जिसमे ८९ सदस्य देशी रियासतों के प्रमुखों द्ववारा मनोनीत किये जायेंगे तथा अन्य ३०० सदस्यों का चुनाव ब्रिटिश शासित प्रान्तों की विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया जाएगा [SIZE=4][COLOR="#0000CD"]( इन ब्रिटिश शासित प्रान्तों की विधानसभा के सदस्यों का चुनाव, भारत सरकार अधिनियम १९३५ के तहत सिमित मताधिकार से , मात्र १५% नागरिको द्वारा वर्ष १९४५ में किया गया था जिसमे ८५% नागरिको को मतदान के अधिकार से वंचित रखा गया )

३- उक्त ३०० सदस्यों में से ७८ सदस्यों को मुस्लिम समाज द्वारा चुना जाएगा क्यों की ये ७८ सीटें मुसलमानों के लिए सुरक्षित होंगी

४- चूँकि बंटवारा नहीं होगा, इसलिए मुस्लिम समाज के लिए संविधान में समुचित प्रावधान बनाया जाएगा

५- संविधान सभा सर्वप्रभुत्ता संपन्न नहीं होगी क्यों कि वह केबिनेट मिशन प्लान १९४६ कि शर्तो के अंतर्गत रहते हुए संविधान लिखेगी, जिसे लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार की अनुमति आवश्यक होगी

६- इस दौरान भारत का शासन प्रबंध भारत सरकार अधिनियम १९३५ के अंतर्गत होता रहेगा, जिसके लिए सर्वदलीय समर्थित एक अंतरिम सरकार को केंद्र में गठित किया जाएगा

इस प्रकार की अनेक शर्तें इस केबिनेट मिशन की थी

केबिनेट मिशन प्लान के १९४६ को सब दलों द्वारा स्वीकार कर लेने के पश्चात् जुलाई १९४६ में संविधान सभा का चुनाव हुआ जिसमे मुस्लिम लीग को ७२ सीटें प्राप्त हुई, कांग्रेस को १९९ तथा अन्य १३ सदस्यों का समर्थन प्राप्त था जिस से उनकी संख्या २१२ थी तथा अन्य १६ थे

चुनाव के पश्चात पंडित जंवाहर लाल नेहरु ने ये बयान दिया कि केबिनेट मिशन प्लान १९४६ की शर्तो को बदल देंगे, जिसके कारण मुस्लिम लीग उसके नेता मोहम्मद अली जिन्ना बिदक गए तथा केबिनेट मिशन प्लान १९४६ को दी गयी अपनी स्वीकृति को वापस ले लिया और बंटवारे की अपनी पुराणी मांग को दोहराना शुरू कर दिया

अपनी मांग को मनवाने के लिए मुस्लिम लीग ने अपनी " सीधी कार्यवाही योजना" की घोषणा कर दी , जो दुर्भाग्य से मार काट, आगजनी की योजना थी

मुस्लिम लीग की " सीधी कार्यवाही योजना " को सर्वप्रथम बंगाल में चलाया गया जहाँ सुरहरावर्दी के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की सरकार शासन कर रही थी , शहर कलकत्ता में दिनांक २० अगस्त १९४६ को, ५००० हिन्दुओ का कत्ले आम किया गया तथा अन्य १५००० घायल हुए तथा हजारो करोडो की संपत्ति नष्ट हुई

मुस्लिम लीग की " सीधी कार्यवाही योजना " के कारण देश की कानून व्यवस्था इतनी बिगड़ गयी कि, ब्रिटिश सरकार ने ये घोषणा कर दी कि यदि भारत के लोग मिलजुल कर अपना संविधान नहीं बना लेते है तो ऐसी हालत में वें कभी भी कहीं पर किसी के हाथो भारत की सत्ता सौंप कर इंग्लेंड वापस चले जायेंगे

सितम्बर १९४६ में अंतरिम सरकार का गठन हुआ, जो मुस्लिम लीग को छोड़ कर अन्य दलों द्वारा समर्थित थी , एक माह बाद मुस्लिम लीग भी अंतरिम सरकार में शामिल हो गयी किन्तु संविधान सभा का लगातार बहिष्कार करती रही , जवाहार लाल नेहरु अंतरिम सरकार में प्रधानमंत्री थे

९ दिसंबर १९४६ को संविधान सभा की पहली बैठक बुलाई गयी जिसमे राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष चुना गया

१३ दिसंबर १९४६ को संविधान की प्रस्तावना को पेश किया गया, जिसे २२ जनवरी १९४७ को स्वीकार किया. इस बैठक में कुल २१४ सदस्य उपस्थित थे, अर्थात ३८९ सदस्यों वाली विधान में कुल ५५% सदस्यों ने ही संविधान की प्रस्तावना को स्वीकार कर लिया, जिसे संविधान की आधारशिला माना जाता है, उसी १३ दिसंबर १९४६ की प्रस्तावना को, बंटवारे के बाद, आज़ाद भारत के संविधान की दार्शनिक आधारशिला के रूप में स्वीकार किया गया है

ध्यान देने की बात है कि २२ जनवरी १९४७ को, संविधान की प्रस्तावना के जिस दार्शनिक आधारशिला को स्वीकार किया गया था उसे अखंड भारत के संघीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में बनाया गया था वह भी इस आशय से कि इसे ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति अनिवार्य थी क्यों कि २२ जनवरी १९४७ को भारत पर अंग्रेजी संसद का ही हुकुम चलता था

यह भी काबिले गौर है कि २२ जनवरी १९४७ कि संविधान सभा कीबैठक में, देशी रियासतों के मनोनीत सदस्य तथा मुस्लिम लीग के ७२ निर्वाचित सदस्य उपस्थित नहीं थे

"१५ अगस्त और २६ जनवरी " राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मनाने चाहिए या इनका बहिष्कार करना चाहिए

इस बीच मुस्लिम लीग की बंटवारे की मांग और उसके समर्थन में "सीधी कार्यवाही योजना" के कारण देश की कानून व्यवस्था तो बिगड ही गयी थी, साथ ही राजनेतिक परिस्थितिय तेजी से बदल रही थी . मार्च १९४७ में माउन्टबेटन को भारत का वायसराय नियुक्त किया गया और वो भारत आते ही बंटवारा और सत्ता हस्तांतरण की योजना बनाने लगा

इसके पहले कि संविधान सभा अपने निर्धारित कार्यक्रम संघीय भारत का संविधान बनाने का कार्यक्रम पूरा करती ३ जून १९४७ को भारत का बंटवारा मंजूर कर लिया गया और भारत के बंटवारे को पुरा करने के लिए ब्रिटिश संसद ने " भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम -१९४७ " को पास करके १५ अगस्त १९४७ को इण्डिया - पाकिस्तान के रूप में दोनों को अर्धराज्य (dominion) घोषित कर दिया



अर्धराज्य इसलिए घोषित कर दिया कि जब तक दोनों देश अपने लिए संविधान बना कर , उसके तहत अपना शासन प्रबंध प्रारंभ नहीं कर देते हैं तब तक इण्डिया - पाकिस्तान का शासन प्रबंध ब्रिटिश संसद कृत " भारत शासन अधिनियम -१९३५" के तहत ही चलता रहेगा

इस प्रकार इण्डिया का शासन प्रबंध करने हेतु १५ अगस्त १९४७ को स्थिति ये थी -----



१- थोड़े समय के लिए कार्यपालिका की जिम्मेदारी का निष्पादन करने हेतु सितम्बर १९४६ में स्थापित जो अंतरिम सरकार थी , वो पंडित नेहरु के नेतृत्व में सर्वदल समर्थित थी. इस प्रकार के गठन में भारत के लोगो की न तो कोई भूमिका थी और ना ही कोई योगदान था

२- विधायिका की जिम्मेदारियों का निष्पादन करने हेतु जुलाई १९४६ में गठित "संविधान सभा" को थोड़े समय के लिए प्रोविजनल संसद की मान्यता मिली थी . जुलाई १९४६ में गठित "संविधान सभा" के

गठन में भी आज़ाद भारत के लोगो की न तो कोई भूमिका थी और न ही कोई योगदान .

आज़ाद भारत के लोगो ने उक्त संविधान सभा को न तो चुना ही था और न ही उसे अधिकृत किया था कि वे लोग भारत के लोगो के लिए संविधान लिखे .



संविधान लिखने के लिए योजनाये बनाने हेतु ब्रिटिश संसद कृत " भारतीय सवतंत्रता अधिनियम -१९४७" की धारा ३ के तहत संविधान सभा को अधिकृत किया गया था

३- फेडरल कोर्ट को उच्चतम न्यायालय की जिम्मेदारियों के निष्पादन करने हेतु अधिकृत किया गया था



४- भारत के लोगो को उसी " भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम -१९४७ " के अंतर्गत ही राजनितिक लोगो को मात्र चुनने का अधिकार दिया गया था

इस प्रकार स्पष्ट स्थिति ये है कि १९४६ में गठित संविधान सभा को आज़ादी के बाद , ब्रिटिश सरकार द्वारा अधिकृत किया गया था कि वे अपने अर्ध राज्य के लिए संविधान बनाने हेतु उचित व्यवस्थ करें जिसके लिए उन्हें ब्रिटिश संसद द्वारा अधिकृत किया गया था भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की धारा ८ देखें ---------- धारा ८ के तहत , संविधान सभा को को सिर्फ इसके लिए अधिकृत किया गया थ कि वो इंडियन डोमिनियन के लिए , संविधान लिखने हेतु जरुरी ओप्चारिक्ताओ कि मात्र तैयारी करेंगे ना कि खुद संविधान लिखने लगेंगे

ये स्थिति १९४७ के अधिनियम की धारा ६ से और स्पष्ट हो जाती है क्योंकि धारा ६ के अंतर्गत दोनों अर्धराज्यों की संविधान सभा को मात्र कानून बनाने के लिए पूर्ण अधिकार दिया गया था



और ये सर्वविदित और स्थापित नियम है कि " कानून बनाने वाला संविधान नहीं बनाता है "

काबिले गौर बात है कि यदि ब्रिटिश संसद की ये नियति होती कि तत्कालीन "संविधान सभा " इन्डियन डोमिनियन के लिए संविधान लिखे , तो धारा ८ में स्पष्ट उल्लेख होता जैसा कि धारा ६ में कानून बनाने के विषय में स्पष्ट उल्लेख है



बल्कि सत्य तो ये है कि इस संविधान को भारत के लोगो से पुष्ठी भी नहीं करवाया गया है , बल्कि संविधान में ही धारा ३८४ की धारा लिखकर , उसी के तहत इसे भारत के लोगो पर थोप दिया गया है जो अनुचित , अवैध और अनाधिकृत है

इस तरह अनाधिकृत लोगो द्वारा तैयार किये गए संविधान के तहत कार्यरत सभी संवेधानिक संस्थाएं अनुचित , अवैध और अनाधिकृत है जैसे --- संसद , विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका आदि जिसे बनाने में भारत के लोगो की सहमति नहीं ली गयी है

मित्रों अभी तक की जानकारी में अगर आपको कोई भी संशय या शंका है तो आप अपने जानकार कानूनविदों से इस बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते है



आप के विचारों का स्वागत रहेगा

जैसा कि उच्चतम न्यायलय की १३ जजों की संविधान पीठ ने वर्ष १९७३ में " केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य " के मामले में भारतीय संविधान के बारे में कहा है कि भारतीय संविधान, स्वदेशी उपज नहीं है और भारतीय संविधान का स्त्रोत भारत नहीं है तो ऐसी परिस्थिति में विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसी संवेधानिक संस्थाए भी तो स्वदेशी उपज नहीं है और न ही भारत के लोग इन संवेधानिक संस्थाओ के श्रोत ही है

उपरोक्त वाद में उच्चतम न्यायलय के न्यायधिशो ने भारत के संविधान के श्रोत तथा वजूद की चर्चा करते हुए कहा है कि

१- भारतीय संविधान स्वदेशी उपज नहीं है - जस्टिस पोलेकर

२- भले ही हमें बुरा लगे परन्तु वस्तुस्थिति ये है कि संविधान सभा को संविधान लिखने का अधिकार भारत के लोगो ने नहीं दिया था बल्कि ब्रिटिश संसद ने दिया था . भारत के नाम पर बोली जाने वाली संविधान सभा के सदस्य न तो भारत के प्रतिनिधि थे और न ही भारत के लोगो ने उनको ये अधिकार दिया था कि वो भारत के लिए संविधान लिखे - जस्टिस बेग

३- यह सर्व विदित है कि संविधान की प्रस्तावना में किया गया वादा ऐतिहासिक सत्य नहीं है . अधिक से अधिक सिर्फ ये कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र २८.५ % लोगो ने अपने परोक्षीय मतदान से चुना था और ऐसा कौन है जो उन्ही २८.५% लोगो को ही भारत के लोग मान लेगा - जस्टिस मेथ्हू

४- संविधान को लिखने में भारत के लोगो की न तो कोई भूमिका थी और न ही कोई योगदान - जस्टिस जगमोहन रेड्डी



उच्चतम न्यायालय के १३ जजों की संविधान पीठ में मात्र एक जज जस्टिस खन्ना को छोड़ कर अन्य १२ जजों ने एक मत से ये कहा था कि, भारतीय संविधान का श्रोत भारत के लोग नहीं है बल्कि इसे ब्रिटेन की संसद द्वारा भारतीयों पर थोपा गया है

दोस्तों २६ जनवरी को मैंने ये सूत्र बनाया था और अब तक इसके ५०० के आसपास view हुए है सूत्र को आप लोगो ने देखा इसके लिए आपको धन्यवाद् ........

दोस्तों मेरा उद्देश्य केवल इतना ही नहीं है कि आप केवल इसे पढ़ कर निकल जाए

आप इस बारे में कुछ मनन करे ........ और अपने विचार भी लिखे तो मेरा उद्देश्य कुछ हद तक सफल हो जाएगा

प्रस्तुत है इसी संधर्भ में कुछ और तथ्य :-

भारत की गुलामी सिद्ध करने वाले संवेधानिक एवं विधिक तथ्य

१- ये कि भारत का राष्ट्रपति १५ अगस्त १९७१ तक भारत का राष्ट्रीय ध्वज नहीं लगाता था



२- यह कि ब्रिटेन का १० नवम्बर १९५३ का एक पत्र जिसका क्रमांक F - 21 - 69 / 51 - U .K . है जिस पर अंडर सेकेट्री के. पि. मेनन के हस्ताक्षर है उसमे स्पष्ट रूप से लिखा है कि भारत के गणराज्य हो जाने के बाद भी ब्रिटिश नेशानालिटी एक्ट १९४८ की धारा A ( १ ) के तहत भारत का प्रत्येक नागरिक ब्रिटिश विधि के आधीन ब्रिटेन का विषय है

३- यह कि भारतीय संविधान की अनुसूची ३ के अनुसार भारतीय संविधान की स्थापना विधि (ब्रिटिश) के द्वारा की गयी है ना कि भारत के लोगो द्वारा

४- भारतीय संविधान की उद्देश्यिका के अनुसार भारतीय संविधान को भारत के लोगो ने इस संविधान को मात्र अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्त्मर्पित किया है .....

इसका निर्माण व् स्थापना नहीं

५- यह कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद १२ के तहत भारत को एक राज्य कहा गया है राष्ट्र नहीं अतः सिद्ध होता है कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक राज्य है न कि एक स्वतंत्र राष्ट्र ( इसकी पुष्टि govt . ऑफ़ इण्डिया की वेबसाइट पर भी होती है जहाँ जिसे हम आज तक राष्ट्रीय चिन्ह पढ़ते आये है उसे राजकीय चिन्ह लिखा हुआ है )

http://india.gov.in/knowindia/national_symbols.php?id=9

६- यह कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद १०५(३) तथा १९४(३) के तहत भारत की संसद तथा राज्य की विधान सभाएं ब्रिटिश संसद की कार्य पद्धति के अनुरूप ही कार्य करने के लिए बाध्य है

७- यह कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद ७३(२) के अनुसार संघ की कार्यपालिका देश की तथाकथित आजादी के बाद उसी प्रकार कार्य करती रहेगी जैसे आजादी से पूर्व गुलामी के समय करती थी

८- यह कि भारत के संवेधानिक पदों पर आसीन सभी व्यक्ति भारतीय संविधान की अनुसूची ३ के तहत विधि (ब्रिटिश) द्वारा स्थापित भारतीय संविधान के प्रति वफादारी की शपथ लेते है ना कि भारत राष्ट्र या भारत के नागरिको के प्रति वफादारी की

९- यह कि भरिय संविधान के अनुच्छेद १ में भारत को इण्डिया इसलिए कहा गया है कि आज भी ब्रिटेन में भारत को नियंत्रित करने के लिए एक सचिव नियुक्त है जिसे भारत का राष्ट्रमंडलीय सचिव कहा जाता है जो कि भारतीय सरकार के निर्णयों को मार्गदर्शित तथा प्रभावित करता है

१०- यह कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३७२ के तहत भारत में आज भी ११ हज़ार से भी अधिक वह सभी अधिनियम, विनिमय, आदेश, आध्यादेश, विधि , उपविधि आदि लागू है जो गुलाम भारत में भारतीयों का शोषण करने के लिए अंग्रेजो द्वारा लागु किये गए थे

११- यह कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद १४७ के तहत भारत के समस्त उच्च न्यायलय तथा सर्वोच्च न्यायलय भारतीय संविधान के निर्वचन के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा पास किये गए २ अधिनियम को मानने के लिए बाध्य है

१२- यह कि इण्डिया गेट का निर्माण भारत के उन गुमनाम सेनिको की याद में किया गया था जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए अपनी जान दे दी थी ना कि भारत की रक्षा के लिए ..... इस अंग्रेजी सेना के सैनिको को आज भी हमारे रास्त्रपति और प्रधानमंत्री श्रधान्जली अर्पित करते है तथा भारत की रक्षा में अपनी जान गवां देने वाले वीरो के स्थल अभी भी उपेक्षित और वीरान है

१३- यह कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा ३७,४७,८१ तथा ८२ के तहत भारत के सभी न्यायलय आज भी ब्रिटिश संसद द्वारा पास किये गए कानूनों तथा ब्रिटेन के न्यायालयों के निर्णय को मानने के लिए बाध्य है

१४- यह कि साधारण खंड अधिनियम की धारा ३(६) के तहत भारत आज भी ब्रिटिश कब्ज़ाधीन क्षेत्र है

१५- यह कि राष्ट्रमंडल नियमावली की धारा ८, ९, ३३९, तथा ३६२ के अनुसार भारत ब्रिटिश साम्राज्य का स्थायी राज्य है तथा भारत को अपने आर्थिक निर्णय ब्रिटेन के मापदंडो के अनुसार ही निश्चित करने पड़ते है

दोस्तों इन सब बातो के आलावा और भी बहुत सी बातें है ........ जिनसे प्रमाणित होता है कि पूर्ण स्वराज्य की मांग हमारी आज तक पूरी नहीं हुई है

हम आज भी आधी अधूरी आजादी को पूर्ण स्वतंत्रता मान कर जी रहे है

जिस गुप्त समझोते के आधार पर कुछ लालची नेताओ के द्वारा भारत की अधूरी आज़ादी स्वीकार कर ली गयी थी उसकी अवधि सन १९९९ में पूरी हो चुकी थी लेकिन १९९९ में कुछ स्वार्थी नेताओ के द्वारा इस समझोते को २०२१ तक के लिए गुप्त रखने के संधि कर ली गयी

और इस गुप्त समझोते के विवाद को निपटाने का अधिकार भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका को भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद १३१ के तहत नहीं है

उपरोक्त सभी तथ्य उच्चतम न्यायलय के अधिवक्ता श्री योगेश कुमार मिश्रा जो कि इलाहाबाद के है उनके द्वारा शोध किये हुए है

और मैंने ये किसी वेबसाइट या ब्लॉग से कॉपी पेस्ट नहीं करे है .......

ये क्रांतिकारी साथी चौधरी मोहकम सिंह आर्य द्वारा संकलित पुस्तक में से लिखे है ........

आप सब इन बातो पर मनन करें और अपने विचार लिखे

धन्यवाद्

जेबों में अपने हर सामान रखते हैं

दिल में ये लोग तो दुकान रखते हैं

शातिर मंसूबों का ज़ायजा क्या लेंगे

दुश्मनों के लिए भी गुणगान रखते हैं

बिखर कर भी जुड़ जाते है पल में

जिस्म में अपने सख्तजान रखते है

मुआवजें जब शिनाख़्त पर होते हैं

वे अपना जिस्म लहुलुहान रखते हैं

टिकेंगे भी भला कैसे हल्फिया बयान

वे बहुत ऊँची जान-पहचान रखते हैं

सफर अंजाम पाये भी तो भला कैसे

राहगीरों के सामने वे तूफान रखते हैं

वे बेखौफ़ न हो तो भला क्यूँ न हों

हर जुर्म के बाद वे अनुष्ठान रखते हैं

जय श्रीराम

जय माँ भारती

”भारत महान या जर्मनी?


मित्रों जैसा कि आप सब लोग जानते ही होंगे कि विश्व में इस समय करीब २०० देश हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के पिछले वर्ष के एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में ८६ महा दरिद्र देश हैं और उनमे भारत १७वे स्थान पर आता है। अर्थात ६९ महा दरिद्र देश भारत से ज्यादा अमीर हैं। केवल १६ महा दरिद्र देश विश्व में ऐसे हैं जो भारत के बाद आते हैं। दुनिया का सबसे अमीर देश इसके अनुसार स्वीटजरलैंड है। मित्रों अब प्रश्न यहाँ से उठता है कि स्वीटजरलैंड सबसे अमीर कैसे है? मेरे एक परीचित एवं अग्रज तुल्य देश के एक वैज्ञानिक श्री राजिव दीक्षित से मिली एक जानकारी के अनुसार स्वीटजरलैंड में कुछ भी नहीं होता। कुछ भी का मतलब कुछ भी नहीं। वहां किसी प्रकार का कोई व्यापार नहीं है, कोई खेती नहीं, कोई छोटा मोटा उद्योग भी नहीं है। फिर क्या कारण है कि स्वीटजरलैंड दुनिया का सबसे अमीर देश है?
मित्रों श्री राजीव दीक्षित के एक व्याक्यान में उन्होंने बताया था कि वे एक बार जर्मनी गए थे और वहां एक प्रोफेसर से उनका विवाद हो गया। विवाद का विषय था ”भारत महान या जर्मनी?” जब कोई निर्णय नहीं निकला तो उन्होंने एक रास्ता बनाया कि दोनों जन एक दूसरे से उसके देश के बारे में कुछ सवाल पूछेंगे और जिसके जवाब में सबसे ज्यादा हाँ का उत्तर होगा वही जीतेगा और उसी का देश महान। अब राजीव भाई ने प्रश्न पूछना शुरू किया। उनका पहला प्रश्न था-
प्र-क्या तुम्हारे देश में गन्ना होता है?
उ-नहीं।
प्र-क्या तुम्हारे देश में केला होता है?
उ-नहीं।
प्र-क्या तुम्हारे देश में आम, सेब, लीची या संतरा जैसा कोई फल होता है?
उ-(बौखलाहट के साथ) हमारे देश में तो क्या पूरे यूरोप में मीठे फल नहीं लगते, आप कुछ और पूछिए।
प्र-क्या तुम्हारे देश में पालक होता है?
उ-नहीं।
प्र-क्या तुम्हारे देश में मूली होती है?
उ-नहीं।
प्र-क्या तुम्हारे देश में पुदीना, धनिया या मैथी जैसी कोई चीज होती है?
उ-(फिर बौखलाहट के साथ) पूरे यूरोप में पत्तेदार सब्जियां नहीं होती, आप कुछ और पूछिए।
इस पर राजीव भाई ने कहा कि मैंने तो तुम्हारे यहाँ के डिपार्टमेंटल स्टोर में सब देखा है, ये सब कहाँ से आया? तो इस पर उसने कहा कि ये सब हम भारत या उसके आस पास के देशों से मंगवाते हैं। तो राजीव भाई ने कहा कि अब आप ही मुझसे कुछ पूछिए। तो उन्होंने और कूछ नहीं पूछा बस इतना पूछा कि भारत में क्या ये सब कूछ होता है? तो उन्होंने बताया कि बिलकुल ये सब होता है। भारत में करीब ३५०० प्रजाति का गन्ना होता है, करीब ५००० प्रजाति के आम होते हैं। और यदि आप दिल्ली को केंद्र मान कर १०० किमी की त्रिज्या का एक वृत बनाएं तो इस करीब ३१४०० वर्ग किमी के वृत में आपको आमों की करीब ५०० प्रजातियाँ बाज़ार में बिकती मिल जाएंगी। इन सब सवालों के बाद प्रोफेसर ने कहा कि इतना सब कूछ होने के बाद भी आप इतने गरीब और हम इतने अमीर क्यों हैं? ऐसा क्या कारण है कि आज आपकी भारत सरकार हम यूरोपीय या अमरीकी देशों के सामने कर्ज मांगने खड़ी हो जाती है? प्राकृतिक रूप से इतने अमीर होने के बाद भी आप भिखारी और हम कर्ज़दार क्यों हैं?
तो मित्रों शंका यही है कि प्राकृतिक रूप से इतने अमीर होने के बाद भी हम इतने गरीब क्यों हैं? और यूरोप जहाँ प्रकृति की कोई कृपा नहीं है फिर भी इतना अमीर कैसे?
मित्रों भारत को विश्व में सोने की चिड़िया कहा गया किन्तु एक बात सोचने वाली है कि यहाँ तो कोई सोने की खाने नहीं हैं फिर यहाँ विश्व का सबसे बड़ा सोने का भण्डार बना कैसे? यहाँ प्रश्न जरूर पैदा होते हैं किन्तु एक उत्तर यह मिलता है कि हम हमेशा से गरीब नहीं थे। अब जब भारत में सोना नहीं होता तो साफ़ है कि भारत में सोना आया विदेशों से। किन्तु हमने तो कभी किसी देश को नहीं लूटा। इतिहास में ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं है जिससे भारत पर ऐसा आरोप लगाया जा सके कि भारत ने अमुक देश को लूटा, भारत ने अमुक देश को गुलाम बनाया, न ही भारत ने आज कि तरह किसी देश से कोई क़र्ज़ लिया फिर यह सोना आया कहाँ से? तो यहाँ जानकारी लेने पर आपको कूछ ऐसे सबूत मिलेंगे जिससे पता चलता है कि कालान्तर में भारत का निर्यात विश्व का ३३% था। अर्थात विश्व भर में होने वाले कुल निर्यात का ३३% निर्यात भारत से होता था। हम ३५०० वर्षों तक दुनिया में कपडा निर्यात करते रहे क्यों की भारत में उत्तम कोटी का कपास पैदा होता था। तो दुनिता को सबसे पहले कपडा पहनाने वाला देश भारत ही रहा है। कपडे के बाद खान पान की अनेक वस्तुएं भारत दुनिया में निर्यात करता था क्यों कि खेती का सबसे पहले जन्म भारत में ही हुआ है। खान पान के बाद भारत में करीब ९० अलग अलग प्रकार के खनीज भारत भूमी से निकलते है जिनमे लोहा, ताम्बा, अभ्रक, जस्ता, बौक् साईट, एल्यूमीनियम और न जाने क्या क्या होता था। भारत में सबसे पहले इस्पात बनाया और इतना उत्तम कोटी का बनाया कि उससे बने जहाज सैकड़ों वर्षों तक पानी पर तैरते रहते किन्तु जंग नहीं खाते थे। क्यों की भारत में पैदा होने वाला लौह अयस्क इतनी उत्तम कोटी का था कि उससे उत्तम कोटी का इस्पात बनाया गया। लोहे को गलाने के लिये भट्टी लगानी पड़ती है और करीब १५०० डिग्री ताप की जरूरत पड़ती है और उस समय केवल लकड़ी ही एक मात्र माध्यम थी जिसे जलाया जा सके। और लकड़ी अधिकतम ७०० डिग्री ताप दे सकती है फिर हम १५०० डिग्री तापमान कहा से लाते थे वो भी बिना बिजली के? तो पता चलता है कि भारत वासी उस समय कूछ विशिष्ट रसायनों का उपयोग करते थे अर्थात रसायन शास्त्र की खोज भी भारत ने ही की। खनीज के बाद चिकत्सा के क्षेत्र में भी भारत का ही सिक्का चलता था क्यों कि भारत की औषधियां पूरी दुनिया खाती थी। और इन सब वस्तुओं के बदले अफ्रीका जैसे स्वर्ण उत्पादक देश भारत को सोना देते थे। तराजू के एक पलड़े में सोना होता था और दूसरे में कपडा। इस प्रकार भारत में सोने का भण्डार बना। एक ऐसा देश जहाँ गाँव गाँव में दैनिक जीवन की लगभग सभी वस्तुएं लोगों को अपने ही आस पास मिल जाती थी केवल एक नमक के लिये उन्हें भारत के बंदरगाहों की तरफ जाना पड़ता था क्यों कि नमक केवल समुद्र से ही पैदा होता है। तो विश्व का एक इ तना स्वावलंबी देश भारत रहा है और हज़ारों वर्षों से रहा है और आज भी भारत की प्रकृती इतनी ही दयालु है, इतनी ही अमीर है और अब तो भारत में राजस्थान में बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर में पेट्रोलियम भी मिल गया है तो आज भारत गरीब क्यों है और प्रकृति की कोई दया नहीं होने के बाद यूरोप इतना अमीर क्यों?
तो मित्रो इसका उत्तर यहाँ से मिलता है। उस समय अफ्रीका और लैटिन अमरीका तक व्यापार का काम दो देशों चीन और भारत से होता था। आप सब जानते ही होंगे कि अफ्रीका दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण उत्पादक क्षेत्र रहा है और आज भी है। इसके अलावा अफ्रीका की चिकित्सा पद्धति भी अद्भुत रही है। सबसे ज्यादा स्वर्ण उत्पादन के कारण अफ्रीका भी एक बहुत अमीर देश रहा है। अंग्रेजों द्वारा दी गयी ४५० साल की गुलामी भी इस देश से वह गुण नहीं छीन पायी जो गुण प्रकृति ने अफ्रीका को दिया। अंग्रेजों ने अफ्रीका को न केवल लूटा बल्कि बर्बरता से उसका दोहन किया। भारत और अफ्रीका का करीब ३००० साल से व्यापारिक सम्बन्ध रहा है। भौगोलिक दृष्टि से समुद्र के रास्ते दक्षिण एशिया से अफ्रीका या लैटिन अमरीका जाने के लिये इंग्लैण्ड के पास से निकलना पड़ता था। तब इंग्लैण्ड वासियों की नज़र इन जहाज़ों पर पड़ गयी। और आप जानते होंगे कि इंग्लैण्ड में कूछ नही था, लोगों का काम लूटना और मार के खाना ही था, ऐसे में जब इन्होने देखा कि माल और सोने भरे जहाज़ भारत जा रहे हैं तो इन्होने जहाज़ों को लूटना शुरू किया। किन्तु अब उन्होंने सोचा कि क्यों न भारत जा कर उसे लूटा जाए।।। तब कूछ लोगों ने मिल कर एक संगठन खड़ा किया और वे इंग्लैण्ड के राजा रानी से मिले और उनसे कहा कि हम भारत में व्यापार करना चाहते हैं हमें लाइसेंस की आवश् यकता है। अब राज परिवार ने कहा कि भारत से कमाया गया धन राज परिवार, मंत्रिमंडल, संसद और अधीकारियों में भी बंटेगा। इस समझौते के साथ सन १७५० में थॉमस रो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से जहांगीर के दरबार में पहुंचा और व्यापार करने की आज्ञा मांगी। और तब से १९४७ तक क्या हुआ है वह तो आप भी जानते है।
थॉमस रो ने सबसे पहले सूरत के एक महल नुमा घर को लूटा जो आज भी मौजूद है। फिर पड़ोस के गाँव में और फिर और आगे। खाली हाथ आये इन अंग्रजों के पास जब करोड़ों की संपत्ति आई तो इन्होने अपनी खुद की सेना बनायी। उसके बाद सन १७५७ में रोबर्ट क्लाइव बंगाल के रास्ते भारत आया उस समय बंगाल का राजा सिराजुद्योला था। उसने अंग्रेजों से संधि करने से मना कर दिया तो रोबर्ट क्लाइव ने युद्ध की धमकी दी और केवल ३५० अंग्रेज सैनिकों के साथ युद्ध के लिये गया। बदले में सिराजुद्योला ने १८००० की सेना भेजी और सेनापति बनाया मीर जाफर को। तब रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को पत्र भेज कर उसे बंगाल की राज गद्दी का लालच देकर उससे संधि कर ली। रोबर्ट क्लाइव ने अपनी डायरी में लिखा था कि बंगाल की राजधानी जाते हुए मै और मीर जाफर सबसे आगे, हमारे पीछे मेरी ३५० की अंग्रेज सेना और उनके पीछे बंगाल की १८००० की सेना। और रास्‍ते में जितने भी भारतीय हमें मिले उन्होंने हमारा कोई विरोध नहीं किया, उस समय यदि सभी भारतीयों ने मिल कर हमारा विरोध किया होता या हम पर पत्थर फैंके होते तो शायद हम कभी भारत में अपना साम्राज्य नहीं बना पाते। वो डायरी आज भी इंग्लैण्ड में है। मीर जाफर को राजा बनवाने के बाद धोखे से उसे मार कर मीर कासिम को राजा बनाया और फिर उसे मरवाकर खुद बंगाल का राजा बना। ६ साल लूटने के बाद उसका स्थानातरण इंग्लैण्ड हुआ और वहां जा कर जब उससे पूछा गया कि कितना माल लाये हो तो उसने कहा कि मै सोने के सिक्के, चांदी के सिक्के और बेश कीमती हीरे जवाहरात लाया हूँ। मैंने उन्हें गिना तो नहीं किन्तु इन्हें भारत से इंग्लैण्ड लाने के लिये मुझे ९०० पानी के जहाज़ किराये पर लेने पड़े। अब सोचो एक अकेला रोबर्ट क्लाइव ने इतना लूटा तो भारत में उसके जैसे ८४ ब्रीटिश अधीकारी आये जिन्होंने भारत को लूटा। रोबर्ट क्लाइव के बाद वॉरेन हेस्टिंग्स नामक अंग्रेज अधीकारी आया उसने भी लूटा, उसके बाद विलियम पिट, उसके बाद कर्जन, लौरेंस, विलियम मेल्टिन और न जाने कौन कौन से लुटेरों ने लूटा। और इन सभी ने अपने अपने वाक्यों में भारत की जो व्याख्या की उनमे एक बात सबमे सामान है। सबने अपने अपने शब्दों में कहा कि भारत सोने की चिड़िया नहीं सोने का महासागर है। इनका लूटने का प्रारम्भिक तरीका यह था कि ये किसी धनवान व्यक्ति को एक चिट्ठी भेजते थे जिसमे एक करोड़, दो करोड़ या पांच करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की मांग करते थे और न देने पर घर में घुस कर लूटने की धमकी देते थे। ऐसे में एक भारतीय सोचता कि अभी नहीं दिया तो घर से दस गुना लूट के ले जाएगा अत: वे उनकी मांग पूरी करते गए। धनवानों के बाद बारी आई देश के अन्य राज्यों के राजाओं की। वे अन्य राज परीवारों को भी ऐसे ही पत्र भेजते थे। कूछ राज परिवार जो कायर थे उनकी मांग मान लेते थे किन्तु कूछ साहसी लोग ऐसे भी थे जो उन्हें युद्ध के लिये ललकारते थे। फिर अंग्रेजों ने राजाओं से संधि करना शुरू कर दिया।
अंग्रेजों ने भारत के एक भी राज्य पर शासन खुद युद्ध जीत कर नहीं जमाया। महारानी झांसी के विरुद्ध १७ युद्ध लड़ने के बाद भी उन्हें हार का मूंह देखना पड़ा। हैदर अली से ५ युद्धों में अंग्रेजों ने हार ही देखी। किन्तु अपने ही देश के कूछ कायरों ने लालच में आकर अंग्रेजों का साथ दिया और अपने बंधुओं पर शस्त्र उठाया।
सन १८३४ में अंग्रेज अधिकारी मैकॉले का भारत में आगमन हुआ। उसने अपनी डायरी में लिखा है कि ”भारत भ्रमण करते हुए मैंने भारत में एक भी भिखारी और एक भी चोर नहीं देखा। क्यों कि भारत के लोग आज भी इतने अमीर हैं कि उन्हें भीख मांगने और चोरी करने की जरूरत नहीं है और ये भारत वासी आज भी अपना घर खुला छोड़ कर कहीं भी चले जाते हैं इन्हें तालों की भी जरूरत नहीं है।” तब उसने इंग्लैण्ड जा कर कहा कि भार त को तो हम लूट ही रहे हैं किन्तु अब हमें कानूनन भारत को लूटने की नीति बनानी होगी और फिर मैकॉले के सुझाव पर भारत में टैक्स सिस्टम अंग्रेजों द्वारा लगाया गया। सबसे पहले उत्पादन पर ३५०%, फिर उसे बेचने पर ९०% । और जब और कूछ नहीं बचा तो मुनाफे पर भी टैक्स लगाया गया। इस प्रकार अंग्रजों ने भारत पर २३ प्रकार के टैक्स लगाए।
और इसी लूट मार से परेशान भारतीयों ने पहली बार एकत्र होकर सब १८५७ में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति छेड़ दी। इस क्रांती की शुरुआत करने वाले सबसे पहले वीर मंगल पाण्डे थे और अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के लिये शहीद होने वाले सबसे पहले शहीद भी मंगल पांडे ही थे। देखते ही देखते इस क्रान्ति ने एक विशाल रूप धारण किया। और इस समय भारत में करीब ३ लाख २५ हज़ार अंग्रेज़ थे जिनमे से ९०% इस क्रांति में मारे गए। किन्तु इस बार भी कूछ कायरों ने ही इस क्रान्ति को विफल किया और अंग्रेजों द्वारा सहायता मांगने पर उन्होंने फिर से अपने बंधुओं पर प्रहार किया।
उसके बाद १८७० में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति छेड़ी हमारे देश के गौरव स्वामी दयानंद सरस्वती ने, उनके बाद लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, वीर सावरकर जैसे वीरों ने। फिर गांधी जी, भगत सिंह, उधम सिंह, चंद्रशेखर जैसे बीरों ने। अंतिम लड़ाई लड़ने वालों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस रहे हैं। सन १९३९ में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब हिटलर इंग्लैण्ड को मारने के लिये तैयार खड़ा था तो अंग्रेज साकार ने भारत से एक हज़ार ७३२ करोड़ रुपये ले जा कर युद्ध लड़ने का निश्चय किया और भारत वासियों को वचन दिया कि युद्ध के बाद भारत को आज़ाद कर दिया जाएगा और यह राशि भारत को लौटा दी जाएगी। किन्तु अंग्रेज अपने वचन से मुकर गए।
आज़ादी मिलने से कूछ समय पहले एक बीबीसी पत्रकार ने गांधी जी से पूछा कि अब तो अंग्रेज जाने वाले हैं, आज़ादी आने वाली है, अब आप पहला काम क्या करेंगे? तो गांधी जी ने कहा कि केवल अंग्रेजों के जाने से आज़ादी नहीं आएगी, आज़ादी तो तब आएगी जब अंग्रेजो द्वारा बनाया गया पूरा सिस्टम हम बदल देंगे अर्थात उनके द्वारा बनाया गया एक एक कानून बदलने की आवश्यकता है क्यों कि ये क़ानून अंग्रेजों ने भारत को लूटने के लिये बनाए थे, किन्तु अब भारत के आज़ाद होने के बाद इन सभी व्यर्थ के कानूनों को हटाना होगा और एक नया संविधान भारत के लिये बनाना होगा। हमें हमारी शिक्षा पद्धति को बदलना होगा जो कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाए रखने के लिये बनाई थी। जिसमे हमें हमारा इतिहास भुला कर अंग्रेजों का कथित महान इतिहास पढ़ाया जा रहा है। अंग्रेजों कि शिक्षा पद्धति में अंग्रजों को महान और भारत को नीचा और गरीब देश बता कर भारत वासियों को हीन भावना से ग्रसित किया जा रहा है। इस सब को बदलना होगा तभी सही अर्थों में आजादी आएगी।
किन्तु आज भी अंग्रेजों के बनाए सभी क़ानून यथावत चल रहे हैं अंग्रेजों की चिकित्सा पद्धति यथावत चल रही है। और कूछ काम तो हमारे देश के नेताओं ने अंग्रेजों से भी बढ़कर किये। अंग्रेजों ने भारत को लूटने के लिये २३ प्रकार के टैक्स लगाए किन्तु इन काले अंग्रेजों ने ६४ प्रकार के टैक्स हम भारत वासियों पर थोप दिए। और इसी टैक्स को बचाने के लिये देश के लोगों ने टैक्स की चोरी शुरू की जिससे काला बाजारी जैसी समस्या सामने आई। मंत्रियों ने इतने घोटाले किये कि देश की जनता भूखी मरने लगी। भारत की आज़ादी के बाद जब पहली बार संसद बैठी और चर्चा चल रही थी राष्ट्र निर्माण की तो कई सांसदों ने नेहरु से कहा कि वह इंग्लैण्ड से वह उधार की राशी मांगे जो द्वितीय विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने भारत से उधार के तौर पर ली थी और उसे राष्ट्र निर्माण में लगाए। किन्तु नेहरु ने कहा कि अब वह राशि भूल जाओ। तब सांसदों का कहना था कि इन्होने जो २०० साल तक हम पर जो अत्याचार किया है क्या उसे भी भूल जाना चाहिए? तब नेहरु ने कहा कि हाँ भूलना पड़ेगा, क्यों कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सब कूछ भुलाना पड़ता है। और तब यही से शुरुआत हुई सता की लड़ाई की और राष्ट्र निर्माण तो बहुत पीछे छूट गया था।
तो मित्रों अब मुझे समझ आया कि भारत इतना गरीब कैसे हुआ, किन्तु एक प्रश्न अभी भी सामने है कि स्वीटजरलैंड जैसा देश आज इतना अमीर कैसे है जो आज भी किसी भी प्रकार का कार्य न करने पर भी मज़े कर रहा है। तो मित्रों यहाँ आप जानते होंगे कि स्वीटजरलैंड में स्विस बैंक नामक संस्था है, केवल यही एक काम है जो स्वीटजरलैंड को सबसे अमीर देश बनाए बैठा है। स्विस बैंक एक ऐसा बैंक है जो किसी भी व्यक्ति का कित ना भी पैसा कभी भी किसी भी समय जमा कर लेता है। रात के दो बजे भी यहाँ काम चलता मिलेगा। आपसे पूछा भी नहीं जाएगा कि यह पैसा आपके पास कहाँ से आया? और उसपर आपको एक रुपये का भी ब्याज नहीं मिलेगा। और ये बैंक आपसे पैसा लेकर भारी ब्याज पर लोगों को क़र्ज़ देता है। खाताधारी यदि अपना पैसा निकालने से पहले यदि मर जाए तो उस पैसा का मालिक स्विस बैंक होगा, क्यों कि यहाँ उत्तराधिकार जैसी कोई परम्परा नहीं है। और स्वीटजरलैंड अकेला नहीं है, ऐसे ७० देश और हैं जहाँ काला धन जमा होता है इनमे पनामा और टोबैको जैसे देश हैं।
मित्रों आज़ादी के बाद भारत में भ्रष्टाचार तो इतना बढ़ा कि मधु कौड़ा जैसे मुख्यमंत्री ने झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर केवल दो साल में ५६०० करोड़ की संपत्ति स्विस बैंक में जमा करवा दी। जब मधु कौड़ा जैसा मुख्यमंत्री केवल दो साल में ५६०० करोड़ रुपये भारत के एक गरीब राज्य से लूट सकता है तो ६३ सालों से सत्ता में बैठे काले अंग्रेजों ने इस अमीर देश से कितना लूटा होगा? ऐसे ही थोड़े ही राजीव गांधी ने कहा था कि जब मै एक रूपया देश की जनता को देता हूँ तो जनता तक केवल १५ पैसे पहुँचते हैं। कूछ समय पहले उत्तर प्रदेश के एक आईएएस अधिकारी अखंड प्रताप सिंह के घर जब इन्कम टैक्स का छापा पड़ा तो उनके घर से ४८० करोड़ रुपये मिले। पूछताछ में अखंड प्रताप सिंह ने बताया कि ऐसे मेरे १९ घर और हैं। और इस प्रकार से ये पैसा पहुंचता है स्विस बैंक।
तो मित्रों अब यहाँ से पता चलता है कि भारत आज़ादी के ६३ साल बाद भी इतना गरीब देश क्यों है और स्वीटजरलैंड इतना अमीर क्यों है? इसका उत्तर यह है कि १५ अगस्त १९४७ को भारत आज़ाद नहीं हुआ था केवल सत्ता का हस्तांतरण हुआ था। सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथ से निकल कर काले अंग्रेजों के हाथ में आ गयी थी।

14 अगस्त 1947 की रात्रि को जो कुछ हुआ था वो वास्तव में स्वतंत्रता नहीं आई थी अपितु ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट हुआ था पंडित नेहरु और लोर्ड माउन्ट बेटन के बीच में. आप लोगों में से बहुतों ने देखा होगा, तो जिस रजिस्टर पर आने वाला प्रधानमन्त्री हस्ताक्षर करता है, उसी रजिस्टर को 'ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर' की बुक कहते हैं तथा उस पर हस्ताक्षर के पश्चात पुराना प्रधानमन्त्री नए प्रधानमन्त्री को सत्ता सौंप देता है एवं पुराना प्रधानमंत्री निकल कर बाहर चला जाता है. यही नाटक हुआ था 14 अगस्त 1947 की रात्रि को 12 बजे.लार्ड माउन्ट बेटन ने अपनी सत्ता पंडित नेहरु के हाथ में सौंपी थी, और हमने कह दिया कि स्वराज्य आ गया | कैसा स्वराज्य और काहे का स्वराज्य ? अंग्रेजो के लिए स्वराज्य का अर्थ क्या था ? और हमारे लिए स्वराज्य का आशय क्या था ? ये भी समझ लीजिये | अंग्रेज कहते थे क़ि हमने स्वराज्य दिया, अर्थात अंग्रेजों ने अपना राज आपको सौंपा है जिससे कि आप लोग कुछ दिन इसे चला लो जब आवश्यकता पड़ेगी तो हम पुनः आ जायेंगे | ये अंग्रेजो की व्याख्या (interpretation) थी एवं भारतीय लोगों की व्याख्या क्या थी कि हमने स्वराज्य ले लिया तथा इस संधि के अनुसार ही भारत के दो टुकड़े किये गए एवं भारत और पाकिस्तान नामक दो Dominion States बनाये गए हैं | ये Dominion State का अर्थ हिंदी में होता है एक बड़े राज्य के अधीन एक छोटा राज्य, ये शाब्दिक अर्थ है और भारत के सन्दर्भ में इसका वास्तविक अर्थ भी यही है. अंग्रेजी में इसका एक अर्थ है "One of the self-governing nations in the British Commonwealth" तथा दूसरा "Dominance or power through legal authority "| Dominion State और Independent Nation में जमीन आसमान का अंतर होता है | मतलब सीधा है क़ि हम (भारत और पाकिस्तान) आज भी अंग्रेजों के अधीन ही हैं. दुःख तो ये होता है कि उस समय के सत्ता के लालची लोगों ने बिना सोचे समझे अथवा आप कह सकते हैं क़ि पूरी मानसिक जागृत अवस्था में इस संधि को मान लिया अथवा कहें सब कुछ समझ कर ये सब स्वीकार कर लिया एवं ये जो तथाकथित स्वतंत्रता प्राप्त हुई इसका कानून अंग्रेजों के संसद में बनाया गया और इसका नाम रखा गया Indian Independence Act अर्थात भारत के स्वतंत्रता का कानून तथा ऐसे कपट पूर्ण और धूर्तता से यदि इस देश को स्वतंत्रता मिली हो तो वो स्वतंत्रता, स्वतंत्रता है कहाँ ? और इसीलिए गाँधी जी (महात्मा गाँधी) 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में नहीं आये थे. वो नोआखाली में थे और कोंग्रेस के बड़े नेता गाँधी जी को बुलाने के लिए गए थेकि बापू चलिए आप.गाँधी जी ने मना कर दिया था. क्यों ? गाँधी जी कहते थे कि मै मानता नहीं कि कोई स्वतंत्रता मिल रही है एवं गाँधी जी ने स्पष्ट कह दिया था कि ये स्वतंत्रता नहीं आ रही है सत्ता के हस्तांतरण का समझौता हो रहा है और गाँधी जी ने नोआखाली से प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी | उस प्रेस स्टेटमेंट के पहले ही वाक्य में गाँधी जी ने ये कहाकि मैं भारत के उन करोड़ों लोगों को ये सन्देश देना चाहता हूँ कि ये जो तथाकथित स्वतंत्रता (So Called Freedom) आ रही है ये मै नहीं लाया | ये सत्ता के लालची लोग सत्ता के हस्तांतरण के चक्कर में फंस कर लाये है | मै मानता नहीं कि इस देश में कोई आजादी आई है | और 14 अगस्त 1947 की रात को गाँधी जी दिल्ली में नहीं थे नोआखाली में थे | माने भारत की राजनीति का सबसे बड़ा पुरोधा जिसने हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई की नीव रखी हो वो आदमी 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में मौजूद नहीं था | क्यों ? इसका अर्थ है कि गाँधी जी इससे सहमत नहीं थे | (नोआखाली के दंगे तो एक बहाना था वास्तव में बात तो ये सत्ता का हस्तांतरण ही थी) और 14 अगस्त 1947 की रात्रि को जो कुछ हुआ है वो स्वतंत्रता नहीं आई .... ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट लागू हुआ था
और आज इन्ही काले अंग्रेजों की संताने आज हम पर शाशन कर रही हैं। वरना क्या वजह है कि मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में नयी दुनिया नामक एक अखबार की पुस्तक का विमोचन करने पहुंचे चिताम्बरम ने यह कहा कि भारत तो हज़ारों वर्षों से भयंकर गरीब देश है। और इन्ही काले अंग्रेजों की एक और संतान हमारे प्रधान मंत्री जी हैं। जब ये प्रधान मंत्री बनने के बाद पहली बार ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गए तो वहां उन्होने कहा कि भारत तो सदियों से गरीब देश रहा है, ये तो भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने आकर हमें अँधेरे से बाहर निकाला, हमारे देश में ज्ञान का सूरज लेकर आये, हमारे देश का विकास किया आदि आदि। अगले दिन लन्दन के सभी बड़े बड़े अखबारों में हैडलाइन छपी थी की भारत शायद आज भी मानसिक रूप से हमारा गुलाम है।

गल्ती से हमने एक ईस्ट इंडिया कंपनी को बुला लिया था और 250 के लिये अपनी आजादी गवा बैठे थे ।

फ़िर आजादी पाने के लिये
(भगत,सिहं उधम सिहं , सुभाष चंद्र बोस, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल,नाना सहिब पेश्व,) और ऐसे 7 लाख 32 हजार क्रतिंकरियो को अपना बलिदान देना पड़ा तब जाकर
आजादी मिली ।

लिकेन आज तो 5000 विदेशी कंपनिया हो गई हैं । क्या ये हमारे देश कि आजादी के
लिये दुबारा खतरा नहीं है ??

जब ये सवाल भारत सरकार से
पूछा जाता हैं तो भारत सरकार
विदेशी कंपनियों को भारत में
बुलाने के लिये 4 तर्क देती हैं.

1)विदेशी कंपनिया पुजीं लाती है। 2)विदेशी कंपनिया तकनीकी लाती हैं
3) विदेशी कंपनिया ऐकस पोर्ट
बढ़ाती है ।
4) विदेशी कंपनिया रोजगार
बढ़ाती हैं 

Friday, March 9, 2012

नेहरू खानदान यानी गयासुद्दीन गाजी का वंश




[अमर उजाला के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश चन्द्र मिश्र ]
जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक  बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक  नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि  हमने किताबों में पढ़ा था कि  वह कश्मीरी पंडित थे। नाते-रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक  में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू राजवंश कि खोज में सियासत के  पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू के पिता गंगाधर नेहरू  का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के  नजदीक  बहती तवी के किनारे पहुंचकर एक  दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की  सचिव हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद  कर सके | अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के  पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक  गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के  वंश का  पोस्टमार्टम करने आए हैं क्या? हंसकर सवाल टालते हुए कहा कि मैडम ऐसा नहीं है, बस बाल कि खाल निकालने कि  आदत है इसलिए मजबूर हूं। यह सवाल काफी समय से खटक  रहा था। कश्मीरी चाय का  आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक  से एक  किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट हार्डी एन्ड्रूज कि  किताब ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ  मदाम पंडित। उस किताब मे तथाकथित गंगाधर का चित्र छपा था। जिसके  अनुसार गंगाधर असल में एक  सुन्नी मुसलमान थे जिनका असली नाम था गयासुद्दीन गाजी। इस फोटो को  दिखाते हुए हाफीजा ने कहा कि इसकी पुष्टि के लिए नेहरू ने जो आत्मकथा लिखी है, उसको पढऩा जरूरी है। नेहरू  की आत्मकथा भी अपने रैक से निकालते हुए एक  पेज को पढऩे को कहा।  इसमें एक जगह लिखा था कि उनके दादा अर्थात मोतीलाल के  पिता गंगा धर थे। इसी तरह जवाहर की बहन कृष्णा ने भी एक  जगह लिखा है कि उनके दादाजी मुगल सल्तनत बहादुरशाह जफर के  समय में नगर कोतवाल थे। अब इतिहासकारो ने खोजबीन की तो पाया कि बहादुरशाह जफ र के  समय कोई भी हिन्दू इतनी महत्वपूर्ण ओहदे पर नहीं था। और खोजबीन करने पर पता चला कि उस वक्त के  दो नायब  कोतवाल हिन्दू थे नाम थे भाऊ सिंह और काशीनाथ जो कि लाहौरी गेट दिल्ली में तैनात थे। लेकिन किसी  गंगा धर नाम के  व्यक्ति का कोई रिकार्ड  नहीं मिला है। नेहरू राजवंश की खोज में मेहदी हुसैन की  पुस्तक  बहादुरशाह जफर और 1857 का गदर में खोजबीन करने पर मालूम हुआ।  गंगा धर नाम तो बाद में अंग्रेजों के कहर के डर से बदला गया था,असली नाम तो था गयासुद्दीन गाजी।

जब अंग्रेजों ने दिल्ली को  लगभग जीत लिया था तब मुगलों और मुसलमानों के  दोबारा विद्रोह के  डर से उन्होंने दिल्ली के सारे हिन्दुओं और मुसलमानों को शहर से बाहर करके  तम्बुओं में ठहरा दिया था। जैसे कि आज कश्मीरी पंडित रह रहे हैं। अंग्रेज वह गलती नहीं दोहराना चाहते थे जो हिन्दू राजाओं-पृथ्वीराज चौहान ने मुसलमान आ•्रांताओंजीवित छोडकर की थी,इसलिये उन्होंने चुन-चुन कर मुसलमानों को  मारना शुरु किया । लेकिन कुछ  मुसलमान दिल्ली से भागकर पास के  इलाको मे चले गये थे। उसी समय यह परिवार भी आगरा की  तरफ कुच कर गया। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा जाते समय उनके दादा गंगा धर को  अंग्रेजों ने रोककर  पूछताछ की थी लेकिन  तब गंगा धर ने उनसे  कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं कश्मीरी पंडित हैं और अंग्रेजों ने उन्हें आगरा जाने दिया बाकी तो इतिहास है ही । यह धर उपनाम कश्मीरी पंडितों में आमतौर पाया जाता है और इसी का  अपभ्रंश होते-होते और धर्मान्तरण होते-होते यह दर या डार हो गया जो कि कश्मीर के  अविभाजित हिस्से में आमतौर पाया जाने वाला नाम है। लेकिन मोतीलाल ने नेहरू उपनाम चुना ताकि यह पूरी तरह से हिन्दू सा लगे। इतने पीछे से शुरुआत करने  का मकसद सिर्फ  यही है कि हमें पता चले कि खानदानी लोगों कि असलियत क्या होती है। 

एक कप चाय खत्म हो गयी थी, दूसरी का  आर्डर हाफीजा ने देते हुए के एन प्राण कि  पुस्तक  द नेहरू डायनेस्टी निकालने के  बाद एक  पन्ने को  पढऩे को दिया। उसके अनुसार जवाहरलाल मोतीलाल नेहरू के  पुत्र थे और मोतीलाल के  पिता का  नाम था गंगाधर । यह तो हम जानते ही हैं कि  जवाहरलाल कि  एक  पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू । कमला नेहरू उनकी माता का  नाम था। जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी। कमला शुरु से ही इन्दिरा के  फिरोज से विवाह के  खिलाफ थीं क्यों यह हमें नहीं बताया जाता। लेकिन यह फि रोज गाँधी कौन  थे? फिरोज उस व्यापारी के  बेटे थे जो आनन्द भवन में घरेलू सामान और शराब पहुँचाने का काम करता था। आनन्द भवन का  असली नाम था इशरत मंजिल और उसके  मालिक थे मुबारक अली। मोतीलाल नेहरू पहले इन्हीं मुबारक  अली के  यहाँ काम करते थे। सभी जानते हैं की  राजीव गाँधी के  नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू लेकिन  प्रत्येक  व्यक्ति के  नाना के  साथ ही दादा भी तो होते हैं। फि र राजीव गाँधी के  दादाजी का  नाम क्या था? किसी  को  मालूम नहीं, क्योंकि राजीव गाँधी के  दादा थे नवाब खान। एक  मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाई करता था और जिसका मूल निवास था जूनागढ गुजरात में है। नवाब खान ने एक  पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया। फिरोज इसी महिला की  सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था घांदी (गाँधी नहीं)घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था। विवाह से पहले फि रोज गाँधी ना होकर फिरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था। हमें बताया जाता है कि फिरोज गाँधी पहले पारसी थे यह मात्र एक भ्रम पैदा किया  गया है । इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का  शिकार थीं । शांति निकेतन में पढ़ते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहारके  लिये निकाल बाहर  किया था। अब आप खुद ही सोचिये एक तन्हा जवान लडक़ी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पड़ी हुई हों थोडी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी विपरीत लिंग की ओर, इसी बात का  फायदा फिरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को  बहला-फुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की  एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली। नाम रखा मैमूना बेगम। नेहरू को  पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए लेकिन  अब क्या किया  जा सकता था। जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को  मिली तो उन्होंने नेहरू को  बुलाकर समझाया। राजनैतिक छवि की  खातिर फिरोज को  मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले, यह एक  आसान काम  था कि एक  शपथ पत्र के जरिये बजाय धर्म बदलने के  सिर्फ  नाम बदला जाये तो फिरोज खान घांदी बन गये फिरोज गाँधी। विडम्बना यह है कि  सत्य-सत्य का  जाप करने वाले और सत्य के  साथ मेरे प्रयोग नामक आत्मकथा लिखने वाले गाँधी ने इस बात का  उल्लेख आज तक नहीं नहीं किया। खैर उन दोनों फिरोज और इन्दिरा को  भारत बुलाकर जनता के  सामने दिखावे के  लिये एक  बार पुन: वैदिक  रीति से उनका विवाह करवाया गया ताकि  उनके  खानदान की ऊँची नाक का भ्रम बना रहे । इस बारे में नेहरू के  सेकेरेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक  प्रेमेनिसेन्सेस ऑफ  नेहरू एज ;पृष्ट 94 पैरा 2 (अब भारत में प्रतिबंधित है किताब) में लिखते हैं कि  पता नहीं क्यों नेहरू ने सन 1942 में एक  अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक  विवाह को  वैदिक  रीतिरिवाजों से किये  जाने  को अनुमति दी जबकि उस समय यह अवैधानिक  था का कानूनी रूप से उसे सिविल मैरिज होना चाहिये था । यह तो एक  स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ  समय बाद इन्दिरा और फि रोज अलग हो गये थे हालाँकि तलाक  नहीं हुआ था ।

फिरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान  किया करते थे और नेहरू की राजनैतिक  गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे। तंग आकर नेहरू ने फिरोज के  तीन मूर्ति भवन मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । मथाई लिखते हैं फिरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को  बड़ी राहत मिली थी। 1960 में फिरोज गाँधी की  मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी जबकी  वह दूसरी शादी रचाने की  योजना बना चुके  थे। संजय गाँधी का  असली नाम दरअसल संजीव गाँधी था अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता । लेकिन संजय नाम रखने की  नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था। ब्रिटेन में तत्कालीन  भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का  नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के  नाम से बनवाया था, इन्हीं कृष्ण मेनन साहब को  भ्रष्टाचार के  एक  मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था । अब संयोग पर संयोग देखिये संजय गाँधी का  विवाह मेनका आनन्द से हुआ। कहा जाता है मेनका जो कि एक  सिख लडकी थी संजय की  रंगरेलियों की  वजह से उनके पिता कर्नल आनन्द ने संजय को  जान से मारने की  धमकी दी थी फि र उनकी शादी हुई और मेनका का  नाम बदलकर मानेका किया गया क्योंकि इन्दिरा गाँधी को  यह नाम पसन्द नहीं था। फिर भी मेनका कोई  साधारण लडकी नहीं थीं क्योंकि उस जमाने में उन्होंने बॉम्बे डाईंग के  लिये सिर्फ  एक  तौलिये में विज्ञापन किया था। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि  संजय गाँधी अपनी माँ को  ब्लैकमेल करते थे और जिसके कारण उनके सभी बुरे कामो पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला और उसे अपनी मनमानी करने कि छूट दी । एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ 206 पर लिखते हैं - 1948 में वाराणसी से एक  सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक  नाम श्रद्धा माता था। वह संस्कत की विद्वान थी और कई सांसद उसके व्याख्यान सुनने को  बेताब रहते थे । वह भारतीय पुरालेखों और सनातन संस्कृत   की  अच्छी जानकार  थी। नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी.उपाध्याय ने एक  हिन्दी का  पत्र नेहरू  को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को एक  इंटरव्यू देने  को राजी हुए । चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत था। नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के  समय ही दिये । मथाई के  शब्दों में  एक  रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा वह बहुत ही जवान खूबसूरत और दिलकश थी। एक  बार नेहरू के  लखनऊ दौरे के  समय श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक  पत्र लेकर नेहरू के  पास आये नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया और अचानक  एक  दिन श्रद्धा माता गायब हो गईं किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं । नवम्बर 1949 में बेंगलूर के  एक कान्वेंट से एक  सुदर्शन सा आदमी पत्रों का  एक  बंडल लेकर आया। उसने कहा कि उत्तर भारत से एक  युवती उस कान्वेंट में कुछ  महीने पहले आई थी और उसने एक  बच्चे को  जन्म दिया । उस युवती ने अपना नाम पता नहीं बताया और बच्चे के  जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को  वहाँ छोडकर  गायब हो गई थी । उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ  पत्र बरामद हुए जो प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं पत्रों का  वह बंडल उस आदमी ने अधिकारियों के सुपुर्द कर  दिया । मथाई लिखते हैं . मैने उस बच्चे और उसकी माँ की खोजबीन की काफी कोशिश की लेकिन कान्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस जो कि एक  विदेशी महिला थी बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक  शब्द भी किसी से नहीं क हा लेकिन मेरी इच्छा थी  कि उस बच्चे का पालन-पोषण मैं करुँ और उसे रोमन  कथोलिक संस्कारो  में बड़ा करूँ चाहे उसे अपने पिता का नाम कभी भी मालूम ना हो लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था। नेहरू राजवंश की कुंडली जानने के बाद घड़ी की तरफ देखा तो शाम पांच बज गए थे, हाफीजा से मिली ढेरों प्रमाणिक  जानकारी के लिए शुक्रिया अदा करना दोस्ती के वसूल के खिलाफ था, इसलिए फिर मिलते हैं कहकर चल दिए अमर उजाला जम्मू दफ्तर की ओर।  
•्रमश:

Friday, January 20, 2012

मतदाता का मतदान


प्रत्याशी लेलो पार्टी लेलो मतदाता लेलो
हाथी लेलो पंजा लेलो साईकिल लेलो कमल का फूल लेलो
राहुल लेलो अखिलेश लेलो मायावती लेलो राजनाथ लेलो
लोकपाल लेलो लूटपाल लेलो आम आदमी का मजाक लेलो
लेलो लेलो हिन्दू लेलो मुसलमान लेलो देश बाटने का इनाम लेलो
इंडिया लेलो पाकिस्तान लेलो
भाजपा लेलो कांग्रेस लेलो
मंदिर लेलो मस्जिद लेलो
लेलो लेलो लेलो आम आदमी की जान लेलो
मजदूर और किसान लेलो इनकी रोटी दाल लेलो
इन्द्रा आवास लेलो नरेगा का हिसाब लेलो
टू जी लेलो कामनवेल्थ लेलो
कलमाड़ी लेलो ये राजा लेलो
लेलो लेलो किडनी लेलो गुर्दा लेलो कलेजा लेलो बच्चो की जान लेलो
लेलो लेलो लेलो किसानो की जमीन लेलो
भट्टा पसोल लेलो नंदी ग्राम लेलो
नक्सलबाद लेलो आतंकबाद लेलो
अन्ना लेलो रामदेव लेलो सुब्रमन्यम स्वामी लेलो
अब बचा क्या हें लालू राम विलास लेलो शरद पवार लेलो
आर यस यस का हाथ लेलो
गाँधी और सुभाष लेलो भगत सिंह आजाद लेलो
पूरा हिंदुस्तान लेलो चोर बेइमान लेलो
लेलो लेलो लेलो मतदाता का मतदान लेलो

Wednesday, August 31, 2011

क्या आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए एक दूसरे का गला काटने को तैयार है?

देश के अन्दर बढ़ रहा नक्सलवाद या फिर किसानो का दर्द या फिर जगह-जगह उठ रहे आरक्षण की मांग आखिर क्या हो गया है इस लोकतन्त्र को, ये समझने का प्रयास जारी है। कहीं न कहीं इन सब के पीछे अर्थ एक बड़ा मुद्दा है, आज देश का राजनेता राजनीति अर्थ कमाने के उद्देश्य से कर रहा है। आरक्षण की मांग इसलिए उठ रही है कि लोग अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए आरक्षण का सहारा लेना चाहते है, या फिर नक्सलवाद उनका भी मुद्दा अर्थ से जुड़ा हुआ है, अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए या फिर कह सकते है कि आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए ही सारा संघर्ष चल रहा है। नेता, अभिनेता, बिजनेस मैन, यहां तक साधु महात्मा भी सब के सब डाक्टर, इंजीनियर, वकील, मास्टर या कह सकते है हर वर्ग अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए एक दूसरे का गला काटने को तैयार है, तो दूसरी ओर किसान मजदूर या फिर गरीबो, दलितों व दबे-कुचले लोगों के द्वारा आन्दोलन हो रहा है, चाहे वो आरक्षण के रूप में हो या फिर नक्सलवाद के रूप में। एक वर्ग दूसरे वर्ग को लूटने के लिए प्र्र्रयासरत है तो दूसरा वर्ग अपने आप को बचाने के लिए। कहीं न कहीं इन सब के पीछे एक राजनैतिक वर्ग भी है जो इन लोगों का बखूबी इस्तेमाल कर रहा है, चिन्ता का विषय यही है ये राजनैतिक वर्ग भी अपने आप को आर्थिक लाभ-पहुंचाने के लिए संघर्षरत है। यहां पर हर पक्ष आर्थिक पक्ष से जुड़ा हुआ है। सोचने का प्रश्न यह है कि जिन नक्सलियों के पास खाने के लिए दो वक्त की रोटी नही है वे एके-47 लेकर कहां से घूम रहे है और उनकी असली मांग क्या है? नक्सलवादी आखिर चाहते क्या है,? अगर देखा जाये तो कुछ लोगों का मानना है कि चीन उनको सपोट कर रहा है । अगर यह सब सच है तो सवाल यह उठता है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा को भेदकर यह गोला बारूद व हथियार नक्सलियों तक कैसे पहुंचे ? क्या कर रही थी सरकार तब जिस समय इनके हाथों में हथियार पहुंचे और इन लोगों ने इनका इस्तेमाल करना शुरू किया। वो कौन से कारण थे जिन्होने नक्सलवादियों को हथियार उठाने के लिए मजबूर कर दिया। इनकी पीढ़ा को हम गहराई में जाकर ही समझ सकते है। अगर ये लड़ाई लूट के खिलाफ है तो जारी रहना चाहिए मगर ये लड़ाई हथियारों के दम से नही बल्कि विचारांे से लड़नी होगी। क्योंकि इस लड़ाई में जो बेकुसूर लोग मारे जा रहे हैं उनका क्या दोष ? क्यों अपने फायदे के लिए हम उनके प्राणों का अंत करें? चारांे तरफ भ्रष्टाचार चरम पर है चाहे वे न्याय पालिका या फिर कार्य पालिका, या फिर संसद के अन्दर बैठे सांसद, किसके ऊपर भरोसा करंे कि ये हमंे इन्साफ देंगे। सरकार को इन संघर्षों और आन्दोलनों के पीछे के कारणों की जांच करनी होगी। तथा इन लोगों के साथ इन्साफ करना होगा। स्थानीय पुलिस प्रशासन ध्वस्त हो चुका है। इसलिए आज आर्मी की पहल की गई है जो कि उचित नहीं है। सरकार की नीतियां बनती तो है जनता के हित में मगर ये नीतियां चलाने वालों के नियत में खोट होता है। जिसका पूरा-पूरा लाभ इन नेताओं ओर नौकरशाहों के खातों में चला जाता है। जनता में बढ़ता आसंतोष कहीं न कहीं इस रूप में उभर कर सामने आया है, प्राकृतिक सम्पदा की लूट में नेताओं और नौकरशाहों का चरित्र चिन्ताजनक है, सरकार को ये सोचना पड़ेगा कि नक्सलियों को गोली से उड़ा देने से उनकी समस्या का समाधान हो जायेगा, ऐसा नहीं है, सरकार आज भूखें को रोटी देने में असमर्थ है, और इस भूल में इन्सान केा जानवर बना दिया है, तो सरकार को इसका विकल्प सिर्फ गोली के रूप मे दिख रहा है, क्योंकि वन जानवरों को संभालना अब सरकार के बस की बात नहीं है। अगर सरकार ने इनसे रोटी न छीनी होती तो शायद ये नक्सलवाद उत्पन्न ही नही होता, क्योंकि इन लोगों के अन्दर सरकार रूपी तंत्र से नफरत हो चुकी है, इसलिए आज ये कुछ भी करने को तैयार है, इनको लगता है कि हमंे इन्साफ बिना गोली के नहीं मिल सकता, आप लोगों से में एक सवाल करता हूं। अगर आपकी रोटी छीन कर ताकत के बल पर कोई खायेगा तो आप उसका विरोध करेंगे की नहीं ? एक न एक दिन जब आप भूख से मर रहे होंगे तो आप भी यही कदम उठायेंगे अगर आपके अन्दर मानव जैसे गुण होंगे तब।

Saturday, August 27, 2011

ना जियों न जीने दो, इसी में समझदारी है

इन्सान को जीने के लिए मात्र पंचतत्वों की आवष्यकता है। अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल, आकाष जो ईष्वर ने मुफ्त में दी थी। परन्तु आज क्या मुफ्त में है। यह जान लेना अति आवष्यक है और कितना सुरक्षित है मनुश्य के पास।
अग्नि - अग्नि के नाम पर लकड़ी है न ही कोई अन्य वस्तु। क्योंकि सरकार ने इसपर कब्जा कर लिया है। गैस, तेल सब पैसे से मिलता है।
वायु- वायु को चन्द लोग मिलकर दिनरात प्रदुशित कर रहे है और नोट छाप रहे है।
पृथ्वी- पृथ्वी की हालात आप देख ही रहे है भगवान ने किसी के नाम एक इंच बैनामा नहीं किया है। इन्सान को ही नही बल्कि पषु-पक्षियों को भी मुफ्त में दिया था लेकिन इन्सान ने एक-एक इंच कब्जा कर लिया और आज आपस में एक-एक इंच के लिए आपस में लड़-मर रहे है। पृथ्वी पर दो लागों का कब्जा है एक तो वो जिनके वाजुओं में ताकत है दुसरे वो जिनकी जेब में पैसा है वह चाहे किसी धर्म जाति या भाशा के लोग हो और जो कमजोर वर्ग है उसके पास जीने के लिए दो बीघा भी नहीं है, जिसने जितना अधिक प्राकृतिक सम्पदा पर कबजा कर लिया वह उतना धनी हो गया जो नही कर पाया वह गरीब हो गया जिसे आप आज देष के उद्योगपति कहते है उन लोगों ने जबरजस्त प्राकृतिक सम्प्रदायों पर कब्जा कर रखा है सोने की खान कोयले की खान हीरे की खान या फिर कह सकते है सारे खनिजांे पर इन्ही का कब्जा है। आप समझ सकते है कि जिस तरह आप के घर में सोना निकल जाय तो आप राजा हो जायेगें और इनके पास तो भण्डार है तो राजा ये होगे या फिर आप। लेकिन ईष्वर ने इन सम्प्रदाओं को मुफ्त में दिया है बिना किसी कास्ट के मगर कीमत आदमी तय कर रहा है। 40000 रु. गज ये लेकर 40 रु. गज तक मगर आम आदमी तब भी बिना छत के था और आज भी दो वर्ग सदा बने रहे कमजोर वर्ग और ताकतवर वर्ग। ताकतवर वर्ग दूसरे वर्ग का षोशण आदि काल से करता चला आ रहा है।
पानी- पानी की हालात जस की तस बनी हुई है। बड़े-बड़े औद्योगिक केन्द्र जल को प्रदुशित कर रहे है। जिसके कारण नदियां नालों का रूप धारण कर ले रही है। लेकिन खुषी की बात  भी यही  है यही औद्योगिक घराने मिनरल वाटर का प्लाट लगाकर पानी को साफ कर रहे है मात्र10 से 30रू प्रति ली के हिसाब से बेच रहे है। आम आदमी के लिए स्वच्छ जल की भारी मारा मारी है जब इन्सानो की ये हालत है तो पषु पक्षी जानवरो की क्या हालत होगी इसका आप अन्दाजा आसानी से लगा सकते है।
आकाष- अकाष की हालत तो आप देख ही रहे है ओजोन की परत में छेद हो गया पूरे विष्व में आज ग्लोवल वार्मिग पर चर्चा हो रही वो दिन दूर नहीं जब सूर्य की किरणे  सीधे आप के उपर अटैक करेगी और हम बीना मारे मर जायेगे इस प्रकार हम आकाष को भी सुरक्षित नहीं रख सके
अब सवाल ये उठता है क्या हम सही दिषा में विकास कर रहें है अगर नहीं तो क्यो नहीं अगर आप ये साचते है कि आपको आतंकी मार डालेगे या फिर लूटेरे लूट लेगे तो आप इसकी चिन्ता करना छोड़ दिजिए देष के अन्दर जो तरह तरह की बिमारिया फैल रही उसके पीछे इन्ही पंच तत्वो का खेल हॅै औ आपके षरीर के अन्दर जो खेल हो रहा र्है वो भी इन्ही के द्धारा होता है अगर आपको को खुद को बचाना है तो इनको बचाना ही होेगा
 क्योंकि ईष्वर ने न कोई जाति न कोई भाशा और न ही कोई धर्म बनाया न ही कोई देष बनाया और न ही प्रदेष बनाया केवल हम लोगो को इन्सान बनाया
ईष्वर  केवल  यही चाहता है उसकी बनाई हर वस्तु से आप प्रेम करे चाहे वो पषु पक्षी जीव  जन्तु  कुछ भी क्यों  न हो ईष्वर की बनाई किसी भी वस्तु को  मनुश्य को नश्ट करने का कोई अधिकार नही है जो मनुश्य नश्ट करने का प्रयास करता है वो ना समझ होता है और वही कश्ट का भोगी होता है अफसोस इस बात का है कि इन्सान इन्सान को मिटाने के दिन रात परिश्रम कर रहा है एक से एक आधुनिक हथियार बना रहा है अणु बम से परुमाण बम बना रहा है सवाल यहा पर ये है कि किसके लिए उस ईष्वर की बनाई वस्तु को नश्ट के लिए अगर ऐसा तो विकास की  ये परिभाशा किसी को पसन्द  नहीं होगी आखिर हम किसी की जान लेना क्यों चाहते है क्या किसी की जान लेकर हम  कभी सुखी हुये है या फिर कभी होगे पषु पक्षी को काट के  हम खा लेते है क्योंकि  हमें लगता है  कि  बहुत अच्छा स्वाद है यानि की जीभ के स्वाद के लिए हम किसी मासूम कि हत्या कर देते है मगर कोई आप की हत्या करना चाहता है तो आपको कश्ट होता है आप अपनी सुरक्षा के लिए अणु वम से लेकर परमाणु तक रख लेते है। दुख इस बात का है कि आप सीधे साधे जानवरों पर अपनी ताकत का इस्तेमाल करते है क्योंकि वो आपको नहीं खा सकता इसीलिए आप उसे खा लेते है। कुछ आप ही लोगों की तरह वो आतंकवादी होते है जिन्हे आप लोगों को मारने में मजा आता है या फिर कह सकते है कि सुख मिलता है। यानि हर आदमी अपने-अपने सुख के लिए एक दूसरे की हत्या कर रहा है। जबकि सुख किसी की हत्या करके नहीं पाया जा सकता। बल्कि किसी को दो रोटी खिलाकर सुख पाया जा सकता है। वो दो रोटी पषु-पक्षी या फिर मनुश्य किसी को भी खिलाकर पा सकता है। काष आप इस बात को समझ पाते और इस नफरत को प्यार में बदल पाते। षरीरिक सुख के लिए हम एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं के अगर पूरा हिन्दुस्तान मुझे मिल जाए तो मैं राजा हो जाऊंगा और मुझे पूरा पाकिस्तान मिल जाए तो मैं राजा हो जाऊंगा या फिर पूरे विष्व पर कब्जा कर लिया  तो मैं राजा हो जाऊंगा केवल अपने षरीर को सुख देने के लिए क्योंकि राजा बनने के बाद आपके पास ढेर सारी गाडियां होगी, बहुत अच्छे मकान होगें, बहुत खूबसूरत पत्नी होगी इनकी संख्या आवष्यकता से अधिक होगी तो क्या सच्चे अर्थों में सुखी होगे। अगर आपको लगता है कि सिकन्दर सुखी था तो आप गलत सोचते है क्यों दूसरे को दुख देकर केवल दुख की प्राप्ति होती है न की सुख की। सम्राट अषोक के पास भी तब तक सुख नही था जब तक वो लड़ रहे थे अपने षरीर के सुख के लिए खून बहा रहा थे मगर जब उन्होंने बचाने के लिए जड़े हुए थे तो वो सुखी हो गये इसी इस तरह अगर आप सच्चे अर्थों में सुख प्राप्त करना चाहते है तो लोगों के सुख के बारे में सोचो। लोगों को अधिक से अधिक सुख देने का प्रयास करेगे उतना अधिक आपको सुख मिलेगा। सीधा सा नियम है सुख दो और सुख लो।

Thursday, August 25, 2011

1945 को विमान दुर्घटना में नेता जी की मृत्यु नहीं हुई


1 आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च अधिकारी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सन् 1999 तक राष्ट्र सघ के यु़द्ध अपराधी क्यों घोषित किये गये? यदि 1945 में मर चुके थे तो उसके बाद 1999 तक  युद्ध अपराधी मानना अपने आप में षक पैदा करता है।
2 सन् 1947 के आजादी के समझोते के गुप्त दस्तावेज तथा फाईल आई एन ए  नं. 10 पेज नं. 279 को अध्ययन करने से पता चलता है कि 18 अगस्त 1945 को विमान दुर्घटना में नेता जी की मृत्यु नहीं हुई।
3 नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की कथित मृत्यु की घोषणा के उपरान्त नेहरु जी ने सन् 1956 में शाहनवाज कमेटी तथा इन्दिरा गांधी ने 1970 में खोसला आयोग द्वारा जांच करवाई तथा दोनों रिर्पोटों में नेताजी को मृत घोषित किया गया, लेकिन 1978 में मोरारजी देसाई ने इन रिर्पोटों को रद्द कर दिया। तथा राजग सरकार ने भी मुखर्जी आयोग की स्थापना कर पुनः इस प्रष्न का उत्तर तलाषने का प्रयास किया था। लेकिन मुखर्जी आयोग द्वारा जांच रिपोर्ट को वर्तमान कांग्रेस सरकार ने मानने से ही इंकार कर दिया। इस जांच रिपोर्ट में जापान सरकार द्वारा जापान में 18 अगस्त 1945 को कोई दुर्घटना होने की बात को सिरे से खारिज करना इस सन्देह को सच्चाई में बदलता है कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को नहीं हुई।
4 सन् 1948 में विजय लक्ष्मी राजदूत ने रुस से वापिस आकर मुम्बई शा न्ताक्रुज़ हवाई अड्ड़े से उतरते ही पत्रकारों के सामने कहा कि मैं भारत की जनता को ऐसा शुभ समाचार देना चाहती हूँ   जो भारत की स्वतन्त्रता से बढ़कर ख़ुशी का समाचार होगा परन्तु नेहरु जी ने इस समाचार को जनता तथा पत्रकारों को देने से इन्कार कर दिया क्योंकि वह समाचार नेताजी से रुस में मुलाकात होने का संदेष था।
5 भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 4 अगस्त 1997 को दिये गये निर्णय के अनुसार 'नेताजी के नाम के साथ मरणोपरान्त षब्द रद्द किया जाता है।' क्या यह सिद्ध  नहीं होता कि नेताजी की मृत्यु नहीं हुई ।
6 सेना मुख्याल्य द्वारा आयोजित 1971 की लड़ाई का विजय दिवस का सीधा प्रसारण 16 दिसम्बर 1997 को दिल्ली दूरदर्षन पर सांय 5-47 बजे से लेकर 7-00 बजे तक किया गया जिसमें बताया गया कि 8 दिसम्बर 1971 को भारतीय सेना और मुक्ति वाहिनी सेना की कमान एक बाबा संभाले हुये थे। दो दो सेनाओं की कमान सम्भालने वाला आखिर यह बाबा कौन था। सरकार इस बाबा का रहस्योदघाटन करे।

7 28 मई 1964 को प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरु की मृत्यु पर बनी सरकारी डाक्यूमैन्टरी फिल्म के लास्ट चैप्टर की फिल्म नं. 816 बी जिसमें साधु के वेष में नेता जी दिखाई दे रहे हैं।

                        नेहरुजी की मृत्यु पर शव के पास साधु के वेश  में खडे नेताजी
8 नेताजी की तथाकथित मृत्यु 18.08.1945 के बाद मंचुरिया रेड़ियो स्टेशन से 19.12.1945, 19.01.1946, 19.02.1946 को नेता जी द्वारा राष्ट्र के नाम दिये गये सन्देश  क्या यह साबित नहीं करते हैं कि नेताजी की मृत्यु का समाचार गलत है।